अजमेर के महान सूफ़ी हज़रत मोईनुद्दीन चिश्ती ने लाहौर के सूफ़ी दाता गंज बख्श साहिब के बारे में कहा था – “गंज बख्श-ए-फ़ैज़-ए-आलम, मज़हर-ए-नूर-ए-ख़ुदा/ नक़ीसान रा पीर-ए-कामिल, कामिलान रा रहनुमा”. विभिन्न धर्मों-सम्प्रदायों के माननेवाले लोगों, राजाओं-नवाबों और सूफ़ी-संतों को यही भरोसा पिछले एक हज़ार साल से दाता गंज बख्श की मज़ार पर श्रद्धा अर्पित करने के लिये लाता रहा है. दाता गंज बख्श का पूरा नाम अबुल हसन अली बिन उस्मान बिन अबी अली अल-जुल्लाबी अल-हुजविरी अल- ग़ज़नवी था. उनकी पैदाइश अफ़ग़ानिस्तान के ग़ज़नी में 1000 ईस्वी में हुई थी और 1063 ईस्वी (कुछ स्रोतों के अनुसार 1071 और 1074) में लाहौर में उनका देहांत हुआ. आध्यात्मिक क्षुधा की शांति के लिये उन्होंने अरब, तुर्की, ईरान, इराक, सीरिया आदि देशों की यात्रा की और अनेक सूफियों और दरवेशों से मिले. इनका विस्तृत विवरण उनकी किताब ‘कश्फ़-उल-महजूब’ में मिलता है. उनकी गिनती सूफियों के जुनैदी चिश्ती सिलसिले में की जाती है.
अपने पीर अबुल फज़ल के आदेश से इस्लाम के पवित्र संदेशों के प्रचार-प्रसार के लिये 1041 ईस्वी में लाहौर आए और वहाँ रावी नदी के किनारे भाटी घाट के पश्चिम में एक टीले पर उन्होंने मस्जिद और ख़ानक़ाह की स्थापना की. कहा जाता है कि इस्लामी विद्वानों और मुल्लाओं ने मस्जिद के दरवाज़े को लेकर विवाद खड़ा कर दिया था. उनका कहना था कि दरवाज़ा दक्षिण की तरफ है जबकि क़ायदे से उसे काबा की ओर होना चाहिए. सूफ़ी ने मस्जिद में नमाज़ पढ़ने के लिये सबको बुलाया और पूछा कि काबा किधर है. लोगों ने देखा कि दरवाज़े के सामने सचमुच में काबा था. इस चमत्कार ने दूर-दूर तक उनका नाम फैला दिया.
उनके शुरुआती दिनों के बारे में एक और कहानी मशहूर है. उस समय लाहौर ग़ज़नी के सुल्तान महमूद ग़ज़नवी के अधीन था जिसका तत्कालीन गवर्नर एक हिन्दू राजा राय राजू था. वह लोगों से दूध की जबरन वसूली करता था. राय राजू को दूध देने जा रही एक औरत से दाता गंज बख्श ने थोड़ा सा दूध माँगा. औरत की हिचकिचाहट देखकर उन्होंने कहा कि उसकी गाय अब से ढेर सारा दूध दिया करेगी. औरत ने बर्तन सूफ़ी को दे दिया. सूफ़ी ने थोड़ा सा दूध पिया और बाकी नदी में डाल दिया. औरत ने घर जाकर देखा कि गाय के थन भरे हुए हैं. उसने तुरंत दूध निकालना शुरू किया लेकिन गाय का थन भरा का भरा ही था. जल्दी ही शहर में यह बात फैल गयी और लोग दूध लेकर दाता गंज बख्श के पास आने लगे.
इसकी जानकारी जब राय राजू को मिली तो उसने इसकी जांच के लिये अपने आदमी भेजे लेकिन वे वापस लौट के नहीं गए. इस पर उसने और लोगों को भेजा. वे भी वापस नहीं गए. गुस्से से भरा गवर्नर ख़ुद ही आया और सूफ़ी को चमत्कार करने की चुनौती दे डाली. दाता ने यह कहकर मना कर दिया कि वह कोई करतबबाज़ नहीं हैं. इस पर राय राजू अपने चमत्कार की शक्ति दिखाते हुए उड़ने लगा और सूफ़ी को कहा कि वह उसे पकड़ कर दिखाए. इस पर सूफ़ी ने अपनी जूती को आदेश दिया कि वह गवर्नर को नीचे लाये. कहते हैं कि उड़ती जूतियाँ राय राजू के सर पर पड़ने लगीं और जल्दी ही वह ज़मीन पर आ गया. वह दाता गंज बख्श के पैरों पर गिर पड़ा और उसने इस्लाम स्वीकार कर लिया. दाता ने उसका नाम रखा शेख अहमद हिन्दी और वह उनके सबसे नजदीकी शिष्यों में एक था.
उन्होंने सूफ़ी सिद्धांतों और अपने उपदेशों को किताबों की श़क्ल दी. कहा जाता है कि दाता ने दस किताबें लिखीं, लेकिन दुर्भाग्य से आज सिर्फ़ एक किताब ही उपलब्ध है. कश्फ़-उल-महजूब नामक यह किताब सूफ़ी सिद्धांतों और व्यवहार की विस्तृत जानकारी देती है. इसमें उदारता, करूणा, दान, प्रार्थना, प्रेम, शुचिता आदि के पवित्र सन्देश हैं और साथ ही भ्रामक आध्यात्मिकता और ढोंग से बचने की हिदायतें भी बताई गई हैं. इसमें सूफ़ी संप्रदाय के इतिहास और विचारधारा की जानकारी के साथ कई महत्वपूर्ण सूफियों के सन्दर्भ भी मिलते हैं. अबुल कासिम कुशैरी की सूफी संप्रदाय पर किताब अर-रिसाला अल-कुशैरिया के साथ दाता गंज बख्श की किताब सूफी सम्प्रदाय को जानने-समझने के लिये अनिवार्य किताब है. कुशैरी दाता के समकालीन थे.
दाता की दरगाह हमेशा से श्रद्धालुओं को खींचती रही है. ख्वाज़ा मोईनुद्दीन चिश्ती ने 1165 ईस्वी में वहाँ दो हफ़्तों तक प्रवास किया था. मुग़ल शहज़ादा दारा शिकोह, जो सूफ़ी संप्रदाय से बहुत प्रभावित था और उच्च धार्मिक-आध्यात्मिक आदर्शों का पालन करता था, ने दाता के मज़ार की कई बार यात्रा की थी. ऐतिहासिक प्रमाणों से ज्ञात होता है कि दरगाह और मस्जिद की लगातार मरम्मत और विस्तार किया जाता रहा है. बादशाह अकबर ने मज़ार के दक्षिण और उत्तर में विशाल दरवाजों और दाता की क़ब्र के आसपास के फ़र्श का निर्माण करवाया.
औरंगज़ेब के शासनकाल के तीसरे साल रावी नदी में आई भारी बाढ़ में मस्जिद तबाह हो गयी थी. बादशाह के आदेश से कुछ ही दिनों में उसी नींव पर एक सुंदर इमारत खड़ी कर दी गयी. उसी समय नदी के किनारे एक तटबंध भी बनाया गया जिसके कारण बाद के वर्षों में मस्जिद को कोई नुकसान नहीं पहुँच सका. महाराजा रणजीत सिंह दरगाह के प्रति असीम श्रद्धा रखते थे और समय-समय पर उसकी मरम्मत कराते रहते थे. वह हर साल उर्स में दस हज़ार रुपये का दान भी करते थे. यह सिलसिला महारानी चाँद कौर के समय भी जारी रहा. महारानी ने क़ब्र के ऊपर एक खूबसूरत छत भी बनवाई जिसके नीचे रात-दिन पवित्र कुरान का पाठ होता रहता है.
1860 में गुलज़ार शाह नामक एक कश्मीरी ने मस्जिद के ऊपर एक बड़े गुम्बद और दोनों तरफ दो छोटे गुम्बदों का निर्माण करवाया. 1868 में हाजी मुहम्मद नूर ने दाता की मज़ार के ऊपर गुम्बद बनवाया. इनके अतिरिक्त छोटे-बड़े निर्माण कार्य होते रहते थे. 1921 में ग़ुलाम रसूल की निगरानी में मस्जिद के भवन को भव्य स्वरुप दिया गया जो दुर्भाग्य से 1960 के भूकंप में नष्ट हो गया. उसी साल पंजाब के सूबाई वक्फ़ विभाग ने मस्जिद और मज़ार को अपने नियंत्रण में लिया था.
श्रद्धालुओं की लगातार बढ़ती संख्या ने ज़िया-उल हक़ की पाकिस्तानी सरकार को इस इमारत के विस्तार की योजना बनाने के विवश कर दिया. दो चरणों की योजना का पहला हिस्सा उन्हीं के समय पूरा हुआ जिसमें मस्जिद को मूल स्थान से कुछ पश्चिम में स्थानांतरित कर दिया गया. दूसरे चरण में कई छोटे भवन बने हैं और कुछ इमारतों को दोमंजिला बना दिया गया है. इस विस्तार की एक ख़ास बात यह है कि उस जगह को ठीक से सजा दिया गया है जहाँ हज़रत मोईनुद्दीन चिश्ती रुके हुए थे.
नीले टाइलों से सजा दाता गंज बक्श मज़ार का अत्यंत सुंदर गुम्बद प्रार्थना-कक्ष के उपर है. दोनों तरफ को लम्बी मीनारों के उपरी हिस्से को सोने से मढ़ा गया है. मज़ार के सामने दो दरवाजें हैं जिनमें से एक ईरान के शाह ने दान किया था. इस दरवाज़े में ईरानी शैली में सोने का काम है. इस परिसर के तमाम कमानियों, खम्भों, खिडकियों के फ्रेम नक्क़ाशी किये हुए संगमरमर से बने हैं. पूरी फ़र्श भी संगमरमर की है. मस्जिद का कुल क्षेत्रफल 3,68,150 वर्ग फुट है और यह पाकिस्तान की तीसरी सबसे बड़ी मस्जिद है. इसमें एक साथ 52 हज़ार से अधिक लोग बैठ सकते हैं.
(इस आलेख का एक रूप 2010 में सामना में प्रकाशित हुआ था)